गुद-गुदी है बूंद-बूंदी !!!
धीरे धीरे हवा चली, मौसम सुहाना बन पड़ी
हवा संग नाचने, काली बादल निकल पड़ी
नदी चली तरंग में, संगीत उमंग की निकल पड़ी
हरी पतियों पर बूंद गिरी, मोतियों सी निखर पड़ी
हरी बालियों को बूंद चूमी, खेत-खलिआन झूम पड़ी
पंछीओ की चुच से, चु-चु निकल पड़ी
चुन्नी-मुन्नी कूदे आँगन में, कागजी-नाऊ निकल पड़ी
धुप संग रंग मिली, इन्द्रधनुष निकल पड़ी
हात पर बूंद लिया, मन को हुई गुद-गुदी
Ram Manohar, May 08, 2009
कविता पढ़ कर लगा कि सचमुच पानी गिरने लगा हो… बढ़िया, मजेदार.
रवि जी – धन्यवाद !!
great poem. Enjoyed redaing.
Are bhai tum to “kavi” bhi ho..nice poem…..reminds me of Monsson in Pipara
kavita pad kar laga bachpan fir aa gaya
Gurmeet Jii,
Dhanyabaad.